Wednesday, 1 August 2012

इच्छाधारी नागिन?



आज तक आपने इच्छाधारी नागिन या नागकन्या का रूप फिल्मों में ही देखा होगा, परंतु आज हम आपको ऐसी इच्छाधारी नागिन से रूबरू कराने जा रहे हैं, जो अपने नाग पति को पाने के लिए इस मृत्युलोक में साधना कर रही है।
स्वयं नागकन्या होने का दावा करने वाली माया का कहना है कि वह हर 24 घंटे में हवन के दौरान नागिन का रूप धारण कर अपनी तीन बहनों से मिलने जाती है जो उसे अपने नाग पति को पाने के लिए किस तरह साधना की जाए, यह निर्देश देती हैं। माया के मुताबिक ये तीनों बहनें भी इच्छाधारी नागिनें हैं।
खुद को बचपन से शादीशुदा समझने वाली माया नाग के नाम का सिंदूर भरती है और उसे पूरा विश्वास है कि जल्द ही उसके पति के साथ उसका मिलन होगा। माया कहती है कि फिलहाल उसका पति इस मृत्युलोक में उसके परिवार के मोह में फँसा हुआ है और उससे सारी शक्तियाँ छीनी जा चुकी हैं।
अपने पूर्व जन्म की कहानी सुनाते हुए वह कहती है कि द्वापर युग के दौरान वह एक खाई में गिर गई थी तब किसी बाबा ने गोपाल नामक नाग को उसकी मदद के लिए भेजा था, तभी से उन दोनों में प्रेम हो गया था। परंतु शादी न हो पाने की वजह से उसने आत्महत्या कर ली थी। ...और तब से आज तक अपने साथी को पाने के लिए भटक रही है।
नागलोक और मृत्युलोक की अजीबो-गरीब कहानियाँ सुनाने वाली यह इच्छाधारी नागिन माया मध्यप्रदेश के बड़नगर स्थित एक आश्रम में निवास करती है। इन कहानियों से प्रभावित वहाँ के निवासी इनकी महामाया माँ भगवती के रूप में आराधना करते हैं।
लोगों द्वारा माया की पूजा करना आस्था का प्रतीक है या उसका इच्छाधारी नागिन होने के अंधविश्वास का प्रभाव है? आज के इस वैज्ञानिक युग में यह घटना कितनी प्रासंगिक है?

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46 बार नाग दंश के बाद भी जीवित है छंगु

इसे अंध विश्वास कहें या जहरीले नाग से अधेड़ उम्र के छंगू लंबरदार की जन्मजात दुश्मनी, जहरीला नाग अब तक उसे 46 बार काट चुका है, लेकिन हरदम वह मौत के मुंह से बच निकलता है। जहरीले सांप के कहर से बचने के लिए वह हर साल नाग पंचमी को नागवंशीय रिवाज से नाग देवता की पूजा-अर्चना करता है, फिर भी उसे कोई राहत नहीं मिल रही।
यह किसी फिल्म की कहानी नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश के बांदा जनपद के पनगरा गांव के शिवपुरा मजरे के रहने वाले 48 साल के छंगू लंबरदार उर्फ सिद्दीक खां की जिंदगी की हकीकत है। जब वह 25 साल का था, तब से एक जहरीला काला नाग उससे जाति दुश्मनी निभा रहा है। रात में देखा गया सपना, दिन में हकीकत में बदल जाता है और सरेआम नाग उसे तमाम लोग की मौजूदगी में खदेड़ कर काट लेता है। ताज्जुब की बात यह है कि सांप के जहर का असर किसी अस्पताल या अन्य गांव के ओझा कम नहीं कर पाते, सिर्फ उसके ननिहाल हुसैनपुर गांव का ओझा ही उसे होश में लाता है।
खासियत यह है कि दूर-दराज के इलाके में सांप काट भी ले तो वह जब तक हुसैनपुर नहीं पहुँच जाता, उसे बेहोशी नहीं आती है। नाग और छंगू के बीच 23 साल से चली आ रही जंग के पीछे उसका भाई शफीका अंधविश्वास को कारण मानता है। शफीका बताता है कि उसके पिता को जमीन में गड़ा धन मिला था। छंगू ने जिद कर उस धन को खर्च करना चाहा। सांप ने सपने में मना किया, लेकिन वह नहीं माना। तब से यह नाग सपने में आने के बाद दिन में उसे काट चुका है। ऐसा अब तक 46 बार हो चुका है।
वह बताता है कि सांप दूर-दराज इलाके में भी काटता है, पर ननिहाल हुसैनपुर पहुंचने तक जहर का उसके भाई पर कोई असर नहीं होता और अस्पताल या अन्य ओझा की झाड़-फूंक से ठीक नहीं होता, सिर्फ हुसैनपुर का एक ओझा ही ठीक करता है। उसने बताया कि शंकरगढ़ का सपेरा दिलनाथ दो बार घर से काला नाग पकड़ कर ले जा चुका है, फिर भी राहत नहीं मिली। वहीं छंगू लंबरदार बताता है कि अब वह सांप के काटने पर जरा भी भयभीत नहीं होता है, काटने से पहले सांप सपने में आता है।
वह बताता है कि सपेरों की सलाह पर वह सोने का सांप बनवा कर इलाहाबाद के प्रयागराज संगम में बहा चुका है और पिछले पांच साल से पूरे परिवार के साथ पनगरा गांव में सपेरा नासिर खां के घर जाकर नागवंशीय रिवाज से दर्जनों जहरीले सांपों की प्रत्यक्ष पूजा-अर्चना करता है, ताकि सांप के कहर से छुटकारा मिल सके, फिर भी छुटकारा नहीं मिल रहा है। सांप पकड़ने में माहिर नासिर का कहना है कि सांप बदले की भावना से काटता है। हो सकता है, कभी उसने सांप पर हमला किया हो। इसमें अंधविश्वास जैसी कोई बात नहीं है।
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चुड़ैल का डेरा


आज से 50-60 साल पहले की है जब गाँवों के अगल-बगल में बहुत सारे पेड़-पौधे, झाड़ियाँ आदि हुआ करती थीं। जगह-जगह पर बँसवाड़ी (बाँस का बगीचा), महुआनी (महुआ का बगीचा), बारियाँ (आम आदि पेड़ों के बगीचे) आदि हुआ करती थीं। गाँव के बाहर निकलने के लिए कच्ची पगडंडियाँ थीं वह भी मूँज आदि पौधों से घिरी हुई।

ऐसे समय में भूत-प्रेतों, चुड़ैलों का बहुत ही बोलबाला था। लोगों को इन अनसुलझी आत्माओं के डरावने अनुभव हुआ करते थे। यहाँ तक कि ये रोएँ खड़ी कर देने वाली आत्माओं के कुछ नाम भी हुआ करते थे जो इनके काम या रहने की जगह आदि पर रखे जाते थे, जैसे- पंडीजी के श्रीफल पर की चुड़ैल, नेटुआबीर बाबा, बड़कीबारी वाला भूत, बँसबाड़ी में की चुड़ैल, सारंगी बाबा, रक्तपियनी चुड़ै़ल, नहरडुबनी चुड़ैल, प्यासनमरी चुड़ैल आदि।

तो आइए आप लोगों को उस चुड़ै़ल से मिलवाता हूँ जो एक आम के बगीचे के कोने में स्थित एक बाँस की कोठी (कोठी यानि एक पास एक में सटे उगे हुए बहुत से बाँस) में रहती थी।

उस समय बहिरू बाबा गबरू जवान थे। चिक्का, कबड्डी, दौड़ आदि में बड़चढ़ कर हिस्सा लेते थे और हमेशा बाजी मारते थे। कबड्डी खेलते समय अगर तीन-चार लोग भी उन्हें पकड़ लेते थे तो सबको खींचते हुए बिना साँस तोड़े बहिरू बाबा लाइन छू लेते थे।

बहिरू बाबा के घर के आगे लगभग 200 मीटर की दूरी पर उनका खुद का एक आम का बगीचा था जिसमें आम के लगभग 15 पेड़ थे और इस बगीचे के एक कोने में बसवाड़ी भी थी जिसमें बाँस की तीन-चार कोठियाँ थीं।

आम का मौसम था और इस बगीचे के हर पेड़ की डालियाँ आम से लदकर झूल रही थीं। दिन में बहिरू बाबा के घर का कोई व्यक्ति दिन भर इन आमों की रखवाली करता था पर रात को रखवाली करने का जिम्मा बहिरू बाबा का ही था। रात होते ही बहिरू बाबा खाने-पीने के बाद अपना बिस्तर और बँसखटिया उठाते थे और सोने के लिए इस आम के बगीचे में चले जाते थे।

एक रात बहिरू बाबा बगीचे में अपनी बँसखटिया पर सोए हुए थे। तभी उनको बँसवाड़ी के तरफ कुछ आहट सुनाई दी। बहिरू बाबा तो जग गए पर खाट पर पड़े-पड़े ही अपनी नजर बँसवाड़ी की तरफ घुमाई, उनको बँसवाड़ी के कुछ बाँस हिलते हुए नजर आ रहे थे पर हवा न बहने की वजह से उनको लगा कि कोई जानवर बाँसों में घुसकर अपने शरीर को रगड़ रहा होगा और शायद इसकी वजह से ये बाँस हिल रहे हैं।

इसके बाद बहिरू बाबा उठकर खाट पर ही बैठ गए और अपनी लाठी संभाल ली। अभी बहिरू बाबा कुछ बोलें इसके पहले ही उन्हें बँसवाड़ी में से एक औरत निकलती हुई दिखाई दी। उस औरत को देखते ही बहिरू बाबा की साँसें तेज हो गई और वे लगे सोचने कि इतनी रात को कोई औरत इस बँसवाड़ी में क्या कर रही है। जरूर कुछ गड़बड़ है।

अभी वे कुछ सोच ही रहे थे कि वह औरत उनके पास आकर कुछ दूरी पर खड़ी हो गई।

बहिरू बाबा तो हक्के-बक्के थे, उनके मुँह से आवाज भी नहीं निकल रही थी पर कैसे भी हिम्मत करके उन्होंने पूछा- तुम कौन हो और इतनी रात को यहाँ क्यों आई हो?

बहिरू बाबा की बात सुनकर वह औरत बहुत जोर से डरावनी हँसी हँसी और बोली- औरत हूँ और इसी बँसबाड़ी में रहती हूँ। बहुत दिनों से मैं तुमको यहाँ सोते हुए देख रही हूँ और धीरे-धीरे मुझे अब तुमसे प्यार हो गया है। मैं सदा तुम्हारी होकर रहना चाहती हूँ।

बहिरू बाबा को अब यह समझते देर नहीं लगी कि यह तो वही चुड़ैल है जिसके बारे में लोग बताते हैं कि इस बगीचे में बहुत साल पहले घुमक्कड़ मदारी (जादूगर) परिवार आकर लगभग तीन-चार महीने रहा था और एक दिन कुछ लोंगो ने उस मदारी परिवार की एक 10-11 साल की बालिका को इसी बसवाड़ी में मरे पाया था और मदारी परिवार वहाँ से अपना बोरिया-बिस्तर लेकर नदारद था और वही बालिका चुड़ैल बन गई थी क्योंकि उसकी हत्या गला दबाकर की गई थी।

बहिरू बाबा अब धीरे-धीरे अपने डर पर काबू पा चुके थे और उस चुड़ैल से बोले- तुम ठहरी मरी हुई आत्मा और मैं जीता-जागता। तुम बताओ मैं तुमको कैसे अपना सकता हूँ।

बहिरू बाबा की बात सुनकर वह चुड़ैल थोड़ा गुस्से में बोली- मैं कुछ नहीं जानती, अगर तुम मुझे ठुकराओगे तो मैं तुम्हें मार डालूँगी। तुम्हें हर हालत में मुझे अपनाना ही होगा।

अब बहिरू बाबा कुछ बोले तो नहीं पर धीरे-धीरे हनुमान चालीसा पढ़ने लगे। वह चुड़ैल धीरे-धीरे पीछे हटने लगी पर बहिरू बाबा को चेतावनी भी देती गई कि हर हालत में उनको उसे अपनाना ही होगा।

एक दिन गाँव में नौटंकी-दल आया हुआ था और बहिरू बाबा अपने दोस्तों के साथ नाच देखने गए हुए थे। जहाँ नाच हो रहा था वहाँ पान की दुकान भी लगी हुई थी। बहिरू बाबा ने वहाँ से पान लगवाकर एक बीड़ा खा लिया और पानवाले से दो बीड़े लगाकर बाँधकर देने के लिए कहा। पानवाले ने दो बीड़े पान कागज में लपेटकर बहिरू बाबा को दे दिए।

नाच देखने के बाद बहिरू बाबा घर आए और सोने से पहले एक बीड़ा पान निकालकर खाए और बाकी एक बीड़े को वैसे ही लपेटकर पाकेट में रख लिए।

उस रात बहिरू बाबा के साथ एक चमत्कार हुआ और वह चमत्कार यह था कि वह चुड़ैल उनके पास नहीं आई।

सुबह बहिरू बाबा जगे तो बहुत खुश थे। उनको लग रहा था कि पान लेकर सोने की वजह से वह चुड़ैल उनके पास नहीं आई। उन्होंने अपने पास रखे उस दूसरे बीड़ा पान को खाया नहीं और दूसरी रात भी उसको जेब में रखकर ही सोए।

उस रात वह चुड़ैल तो आई पर इनके खाट से कुछ दूरी पर खड़ी होकर चिल्लाने लगी। बहिरू बाबा की नींद खुल गई और वे उठकर बैठ गए।

उस चुड़ैल ने गुस्से में कहा- तुम्हारी जेब में पान लपेटा जो कागज है उसको निकालकर फेंक दो।

पर ऐसा करने से बहिरू बाबा ने मना कर दिया। लाख कोशिशों के बाद भी जब वह चुड़ैल अपने मकसद में कामयाब नहीं हुई तो रोते हुए उस बँसवाड़ी की ओर चली गई।

अब बहिरू बाबा को नींद नहीं आई वे फौरन टार्च जलाकर पान लपेटे उस कागज को देखने लगे। उनको यह देखकर बहुत विस्मय हुआ कि पान जिस कागज में लपेटा था वह कागज किसी अखबार का भाग था और उसमें हनुमान-यंत्र बना हुआ था।

अब बहिरू बाबा समझ चुके थे कि पान की वजह से नहीं अपितु हनुमानजी की वजह से उन्हें इस दुष्ट चुड़ैल से पीछा मिल गया था।

दूसरे दिन नहा-धोकर बहिरू बाबा मंदिर गए और वहाँ से एक हनुमान का लाकेट खरीदकर गले में धारण किए और इतना ही नहीं अब रात को सोते समय वे हमेशा हनुमान चालीसा का पाठ करते और हनुमान चालीसा को सिर के पास रखकर ही सोते।

अब बहिरू बाबा फिर से भले-चंगे हो गए थे और अब आम के बगीचे में सोना भी शुरु कर दिए थे। हाँ पर वे जब भी अकेले सुनसान में उस बँसवाड़ी की तरफ जाते थे तो उस चुड़ैल को रोता हुआ ही पाते थे। वह चुड़ैल बहिरू बाबा से अपने प्यार की भीख माँगते हुए गिड़गिड़ाती रहती।

रहस्यमयी झील : पांडुजी


दक्षिणी अफ्रीका के प्रांत उत्तरी ट्रांसवाल में पांडुजी नाम की एक अद्भुत झील है। इस झील के बारे में कहा जाता है कि इसके पानी को पीने के बाद कोई जिन्दा नहीं रहा और न ही आज तक कोई वैज्ञानिक इसके पानी का रासायनिक विश्लेषण कर पाया है। मुटाली नामक जिस नदी से इस झील में पानी आता है, उसके उद्गम स्थल का पता लगाने की भी कोशिशें की गईं मगर इसके बारे में कोई जानकारी नहीं मिल सकी। खास बात यह भी है कि इस झील का पानी अजीबो-गरीब तरीके से ज्वार भाटे की तरह उठता है व गिरता है।
सन् 1947 में हैडरिक नामक एक किसान ने झील में नाव चलाने का प्रयास किया। नाव सहित जैसे ही वह झील के बीचों-बीच पहुँचा, रहस्यमय तरीके से गायब हो गया। हैडरिक और उसकी नाव का कहीं कोई पता नहीं चल पाया।
सन् 1953 में बर्न साइड नामक एक प्रोफेसर ने इस झील के रहस्य से पर्दा उठाने का बीड़ा उठाया। प्रोफेसर बर्न साइड अपने एक सहयोगी के साथ अलग-अलग आकार की 16 शीशियाँ लेकर पांडुजी झील की तरफ चल पड़े। उन्होंने अपने इस काम में पास ही के बावेंडा कबीले के लोगों को भी शामिल करना चाहा, लेकिन कबीले के लोगों ने जैसे ही पांडुजी झील का नाम सुना तो वे बिना एक पल की देर लगाए वहाँ से भाग खड़े हुए। कबीले के एक बुजुर्ग आदिवासी ने बर्न साइड को सलाह दी कि अगर उन्हें अपनी और अपने सहयोगी की जान प्यारी है तो पांडुजी झील के रहस्य को जानने का विचार फौरन ही छोड़ दें। उसने कहा कि वह मौत की दिशा में कदम बढ़ा रहा है क्योंकि आज तक जो भी झील के करीब गया है उसमें से कोई भी जिन्दा नहीं बचा।
प्रोफेसर बर्न साइड वृद्ध आदिवासी की बात सुनकर कुछ वक्त के लिए परेशान जरूर हुए, लेकिन वे हिम्मत नहीं हारे, साहस जुटाकर वह फिर झील की तरफ चल पड़े। एक लंबा सफर तय कर जब वे झील के किनारे पहुँचे तब तक रात की स्याही फ़िज़ा को अपनी आगोश में ले चुकी थी। अंधेरा इतना घना था कि पास की चीज भी दिखाई नहीं दे रही थी। इस भयानक जंगल में प्रोफेसर बर्न साइड ने अपने सहयोगी के साथ सुबह का इंतजार करना ही बेहतर समझा।
सुबह होते ही बर्न साइड ने झील के पानी को देखा, जो काले रंग का था। उन्होंने अपनी अंगुली को पानी में डुबोया और फिर जबान से लगाकर चखा। उनका मुंह कड़वाहट से भर गया। इसके बाद बर्न साइड ने अपने साथ लाई गईं शीशियों में झील का पानी भर लिया। प्रोफेसर ने झील के आसपास उगे पौधों और झाडियों के कुछ नमूने भी एकत्रित किए।
शाम हो चुकी थी। उन्होंने और उनके सहयोगी ने वहाँ से चलने का फैसला किया। वे कुछ ही दूर चले थे कि रात घिर आई। वे एक खुली जगह पर रात गुजारने के मकसद से रुक गए। झील के बारे में सुनीं बातों को लेकर वे आशंकित थे ही, इसलिए उन्होंने तय किया कि बारी-बारी से सोया जाए।
जब प्रोफेसर बर्न साइड सो रहे थे तब उनके सहयोगी ने कुछ अजीबो-गरीब आवाजें सुनीं। उसने घबराकर प्रोफेसर को जगाया। सारी बात सुनने पर बर्न साइड ने आवाज का रहस्य जानने के लिए टार्च जलाकर आसपास देखा, लेकिन उन्हें कुछ भी पता नहीं चला। आवाजों के रहस्य को लेकर वे काफी देर तक सोचते रहे।
सवेरे चलने के समय जैसे ही उन्होंने पानी की शीशियों को संभाला तो वे यह देखकर हैरान रह गए कि शीशियाँ खाली थीं। हैरानी की एक बात यह भी थी कि शीशियों के ढक्कन ज्यों के त्यों ही लगे हुए थे। वे एक बार फिर पांडुजी झील की तरफ चल पड़े।
लेकिन बर्न साइड खुद को अस्वस्थ महसूस कर रहे थे, उनके पेट में दर्द भी हो रहा था। वे झील के किनारे पहुँचे। बोतलों में पानी भरा और फिर वापस लौट पड़े। रास्ते में रात गुजारने के लिए वे एक स्थान पर रुके, लेकिन इस बार उनकी आंखों में नींद नहीं थी। सुबह दोनों यह देखकर फिर हैरान रह गए कि शीशियाँ खाली थीं।
बर्न साइड का स्वास्थ्य लगातार गिरता जा रहा था, इसलिए वे खाली हाथ ही लौट पड़े। घर पहुँचने पर नौवें दिन बर्न साइड की मौत हो गई। पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक आंतों में सूजन आ जाने के कारण बर्न साइड की मौत हुई थी।
प्रोफेसर द्वारा एकत्रित झील के समीप उगे पौधों के नमूने भी इतने खराब हो चुके थे कि उनका परीक्षण कर पाना मुमकिन नहीं था।
बर्न साइड का जो सहयोगी उनके साथ पांडुजी झील का रहस्य जानने गया था, उनकी मौत के एक हफ्ते बाद हो गई। वह पिकनिक मनाने समुद्र तट पर गया, वह एक नाव में बैठकर समुद्र के किनारे से बहुत दूर चला गया। दो दिन बाद समुद्र तट पर उसकी लाश पाई गई।
आज तक इस रहस्य का पता नहीं लग पाया है कि उसकी मौत महज एक हादसा थी या खौफनाक पांडुजी झील का अभिशाप। इस अभिशप्त झील के बारे में जानकारी हासिल करने वालों की मौत भी इस झील के रहस्य की तरह ही एक रहस्य बनकर रह गई है।

जंगल की चुड़ैल


ठंड का समय था, घना कोहरा छाया था, सारे लोग जल्दी जल्दी कार्यालय का काम ख़त्म करके घर की तरफ निकल रहे थे। चौबे जी उस समय के बड़े अधिकारियों में से एक थे, वे उस समय के उच्च वर्ग के लोगों में एक अमीन का काम करते थे !
रोज की तरह ही उस दिन कम ख़त्म होने के बाद घर के लिए अपनी गाड़ी से रवाना होने लगे। रास्‍ते में उन्हें हाट से कुछ समान भी लेना था तो वे और साथियों से अलग हो गये। उन्होंने घर की कुछ जरूरत के समान लिए और गाड़ी आगे बढ़ा दी।
आगे जाने पर उन्हें मछली बाज़ार दिखा और वे मछली खरीदने के लिए रुक गये ! ताज़ी मछलियाँ लेने और देखने में वक्त ज़्यादा ही गुजर गया ! उनकी जब अपनी घड़ी पर नज़र गई तो उन्हें आभास हुआ कि घर जाने में बहुत देर हो जाएगी और यह सब लेकर घर पहुँचने में काफ़ी समय लग जाएगा। यह सब सोच कर उन्होंने सोचा कि जंगल के रास्ते से निकला जाए, जल्दी पहुँच जाउँगा !
तो उन्होंने अपना स्ता बदला और जंगल की तरफ़ अपनी गाड़ी को घुमा लिया।
बारह बज चुके थे गाड़ीरा तेज रफ़्तार से आगे बढ़ रही थी तभी अचनाक तेज ब्रेक के साथ गाड़ी को रोकना पड़ा !
उनकी गाड़ी के आगे एक औरत ज़ोर-2 से रो रही थी।
उन्होंने सोचा इस वीराने में यह औरत क्या कर रही है, उन्हें लगा कि किसी मजदूर की पत्नी होगी जो नाराज़ होकर घर छोड कर जंगल में भाग आई है, तो उन्होंने उससे पूछा- यहाँ जंगल में तुम क्या कर रही हो?
लेकिन कोई जवाब न देकर वह और ज़ोर-2 से रोने लगी। सारे जंगल में उसकी हूँ हूँ हूँ हूँ सी सिसकियाँ गूँज रही थी।
फिर चौबे जी ने पूछा- तुम्हारा घर कहाँ हैं?
लेकिन वो कुछ भी ना बोली।
तब चौबे जी ने कहा- आज चलो मेरे घर में रहना, सुबह अपने घर चली जाना ! यह जंगल बहुत सारे जंगली जानवरों से भरा है, रात भर यहाँ मत रूको ! चलो आज मेरे घर में सब के लिए खाना बना देना और कल सुबह अपने घर चली जाना !
उसने यह सुना तो झट से तैयार हो गई और गाड़ी में पीछे की सीट पर बैठ गई ! सिर पर बड़ा सा घूँघट डालने की वजह से उसका चेहरा छिपा हुआ था !
कुछ ही देर में गाड़ी घर के दरवाजे पर थी, घर के लोग कब से उनकी राह देख रहे थे।
गाड़ी रुकते ही माँ ने पूछा- आज तो बहुत देर हो गई और सारे लोग आ भी चुके हैं !
तब उन्होंने सारी बातें अपनी माँ को बताई और कहा- आज खाना इससे बनवा लो, कल सुबह यह अपने घर चली जाएगी। इतनी रात को बेचारी जंगल में कहा भटकती, इसलिए मैं ले आया !
पर माँ को कुछ संदेह हो रहा था कि कहीं चोर तो नहीं है, रात को सोने के बाद या खाना बनाते समय कहीं घर के सामान ही चुरा कर ना ले जाए !
पर बेटे की बात को कैसे मना करती !
उन्होंने उस औरत को कहा- देखो, आज तो मैं रख ले रही हूँ लेकिन कल सुबह होते ही यहाँ से चली जाना ! जाओ रसोई में यह सामान उठा कर ले जाओ और खाना बना दो !
उसने फिर से जवाब नहीं दिया ! बस हूँ हूँ हूँ की ध्वनि सी बाहर आई !
और वो सारा सामान लेकर माँ के पीछे-2 चल दी !
रसोई में सारा सामान रखवा कर माँ ने उसे खाना जल्दी बनाने की सख्‍त हिदायत दी और वहाँ से चली गई ! लेकिन उनका मन कुछ परेशान सा था।
फिर 5 मिनट में रसोई में उसे देखने चली गई कि वो क्या कर रही है और उसका चेहरा भी देखना चाहती थी !
लेकिन...
वहाँ पहुँची तो देखा कि वो मछलियों का थैला निकाल रही थी।
उन्होंने बहुत ज़ोर से गुस्से में कहा- यहाँ सब खाने का इंतजार कर रहे हैं और तुम अभी तक मछलियाँ ही निकाल रही हो? कल सुबह तक बनाओगी क्या?
उसके सिर पर घूँघट अभी भी था तो चेहरा देखना मुश्किल था !
उन्होंने उससे कहा- तुम जल्दी से खाने की तैयारी करो, मैं आग सुलगा देती हूँ काम जल्दी हो जाएगा !
और वे जल्दी से चूल्हा जलाने की तैयारी करने लगी लेकिन साथ ही वो उसका चेहरा देखने की भी कोशिश कर रही थी।
लेकिन वो जितना देखने की कोशिश करती वो और पल्लू खींच लेती ! अंत में हार कर वे बोली- देखो, मैंने आग सुलगा दी है अब आगे सारा काम कर लो ! कुछ ज़रूरत हो तो बुला लेना !
लेकिन वो फिर कुछ नहीं बोली।
अब उन्हें लगा कि यहाँ से जाने में ही ठीक है वरना मेरा भी समय खराब होगा और हो सकता है कि अंजान लोगों से डर रही हो !
यह सब सोच कर उन्होंने उसे कहा- मैं आ रही हूँ, जल्दी से खाना बना कर रखना !
और वहाँ से निकल गई !
मन अभी तक परेशान ही था !
कभी अपने कमरे कभी बच्चों के कभी बाहर सब को देख रही थी, कहीं कुछ अनहोनी ना हो जाए, एक मिनट भी आराम से नहीं बैठ पाई !
अभी पाँच मिनट ही हुए थे पर उनके लिए वो घड़ी पहाड़ सी हो रही थी !
समय बीत ही नहीं रहा था !
आठ मिनट बड़ी मुश्किल से गुज़रे और वे तुरंत ही कुछ सोच कर रसोई की तरफ दौड़ी !
और वहाँ पहुँच कर...
जैसे ही उन्होंने रसोई घर का नज़ारा देखा, उनकी आँखे फटी की फटी रह गई ! उनके पैर बिल्कुल ही जम गये ना उनसे आगे जाया जा रहा था ना ही पीछे !
उनके हृदय की धड़कनें रुक रही थी !
वो औरत रसोई में बैठ कर कच्ची मछलियाँ खा रही थी ! सारी रसोई में मछलियाँ और खून बिखरा पड़ा था ! उसके सिर से घूँघट भी उतरा पड़ा था !
इतना खौफनाक चेहरा आज तक उन्होंने नहीं देखा था ! बाल, नाख़ून सब बढ़े हुए थे !
मछलियाँ खाने में मग्न होने की वजह से उसे कुछ ध्यान भी नहीं था ! और खुशी से कभी-2 वो आवाज़ें भी निकाल रही थी ! हूँ हूँ हूँ सी आवाज़ें गूँज रही थी !
रसोई पिछवाड़े में होने की वजह से और लोगों का ध्यान भी इधर नहीं आ रहा था !
माँ को भी कुछ नहीं समझ आ रहा था कि चिल्लाने से कहीं घर के लोगों को नुकसान ना पहुँचाए !
वो चुड़ैल से अपने घर को कैसे बचाए उन्हें समझ नहीं आ रहा था ! बस भगवान का नाम ही उनके दिमाग़ में आ रहा था !
अचानक वे आगे बढ़ने लगी उसकी तरफ !
और झट से एक थाल लिया और चूल्‍हे की तरफ दौड़ी ! उस चुड़ैल की नज़र भी माँ पर पड़ चुकी थी सो वो भी कुछ सोच कर उठी अपनी जगह से !
माँ कुछ भी देर नहीं करना चाहती थी, उन्हें पता था कि आज अगर ज़रा सी भी लापरवाही हुई तो अनहोनी हो जाएगी !
उस चुड़ैल के कुछ करने से पहले ही उन्हें चूल्‍हे तक पहुँचना था !
और चूल्‍हे के पास पहुँच कर उन्होंने जलता हुआ कोयला थाल में भर लिया और चुड़ैल की तरफ लेकर जोर से फेंका !
आग की जलन की वजह से वो अजीब सी डरावनी आवाज़ें निकालने लगी !
अब तो उसकी आवाज़ें बाहर भी जा रही थी, सारे लोग बाहर से रसोई की तरफ भागे !
वो चुड़ैल ज़ोर २ से हूँ हूँ हूँ... की आवाज़ निकाल रही थी और पूरी रसोई में दौड़ रही थी और माँ को पकड़ना भी चाह रही थी !
लेकिन अब सारे लोग रसोई में आ चुके थे तो लोगों की भीड़ देख कर वो और भी डर गई थी !
लोगों की भीड़ को ठेलती हुई वो बाहर जंगल की तरफ भागी !
और सारे लोग यह मंज़र देख कर डरे सहमे से खड़े थे और मन हीं मन माँ की हिम्मत की दाद दे रहे थे !

भानगढ़ : भुतहे खंडहर ??

भानगढ़, राजस्थान के अलवर जिले में सरिस्का राष्ट्रीय उद्यान के एक छोर पर है। यहाँ का किला बहुत प्रसिद्ध है जो 'भूतहा किला' माना जाता है। इस किले को आमेर के राजा भगवंत दास ने 1573 में बनवाया था। भगवंत दास के छोटे बेटे और मुगल शहंशाह अकबर के नवरत्नों में शामिल मानसिंह के भाई माधो सिंह ने बाद में इसे अपनी रिहाइश बना लिया।
माधोसिंह के तीन बेटे थे- सुजाणसिंह, छत्रसिंह, तेजसिंह। माधोसिंह के बाद छत्रसिंह भानगढ़ का शासक हुआ। छत्रसिंह के बेटे अजबसिंह थे। यह भी शाही मनसबदार थे। अजबसिंह ने आपने नाम पर अजबगढ़ बसाया था। अजबसिंह के बेटे काबिलसिंह और इसका बेटा जसवंतसिंह अजबगढ़ में रहे। अजबसिंह का बेटा हरीसिंह भानगढ़ में रहा (वि. सं. १७२२ माघ वदी भानगढ़ की गद्दी पर बैठे)। माधोसिंह के दो वंशज (हरीसिंह के बेटे) औरंग़ज़ेब के समय में मुसलमान हो गये थे। उन्हें भानगढ़ दे दिया गया था। मुगलों के कमज़ोर पड़ने पर महाराजा सवाई जयसिंह जी ने इन्हें मारकर भानगढ़ पर कब्जा कर लिया।

भानगढ़ का किला चारदीवारी से घिरा है जिसके अंदर घुसते ही दाहिनी ओर कुछ हवेलियों के अवशेष दिखाई देते हैं। सामने बाजार है जिसमें सड़क के दोनों तरफ कतार में बनाई गई दोमंजिली दुकानों के खंडहर हैं। किले के आखिरी छोर पर दोहरे अहाते से घिरा तीन मंजिला महल है जिसकी ऊपरी मंजिल लगभग पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है।

 

अरावली की गोद में बिखरे भानगढ़ के खंडहरों को भले ही भूतों का डेरा मान लिया गया हो मगर सोलहवीं सदी के इस किले की घुमावदार गलियों में कभी जिंदगी मचला करती थी। किले के अंदर करीने से बनाए गए बाजार, खूबसूरत मंदिरों, भव्य महल और तवायफों के आलीशान कोठे के अवशेष राजावतों के वैभव का बयान करते हैं। लेकिन जहां घुंघरुओं की आवाज गूंजा करती थी वहां अब शाम ढलते ही एक रहस्यमय सन्नाटा छा जाता है। दिन में भी आसपास के गांवों के कुछेक लोग और इक्कादुक्का सैलानी ही इन खंडहरों में दिखाई देते हैं।
भानगढ़ में भूतों को किसी ने भी नहीं देखा। फिर भी इसकी गिनती देश के सबसे भुतहा इलाकों में की जाती है। इस किले के रातोंरात खंडहर में तब्दील हो जाने के बारे में कई कहानियां मशहूर हैं। इन किस्सों का फायदा कुछ बाबा किस्म के लोग उठा रहे हैं जिन्होंने खंडहरों को अपने कर्मकांड के अड्डे में तब्दील कर दिया है। इनसे इस ऐतिहासिक धरोहर को काफी नुकसान पहुंच रहा है मगर इन्हें रोकने वाला कोई नहीं है।
राजस्थान के अलवर जिले में सरिस्का नॅशनल पार्क के एक छोर पर है भानगढ़। इस किले को आमेर के राजा भगवंत दास ने 1573 में बनवाया था। भगवंत दास के छोटे बेटे और मुगल शहंशाह अकबर के नवरत्नों में शामिल मानसिंह के भाई माधो सिंह ने बाद में इसे अपनी रिहाइश बना लिया।

चारदीवारी के अंदर कई अन्य इमारतों के खंडहर बिखरे पड़े हैं। इनमें से एक में तवायफें रहा करती थीं और इसे रंडियों के महल के नाम से जाना जाता है। किले के अंदर बने मंदिरों में गोपीनाथ, सोमेश्वर, मंगलादेवी और क्ेशव मंदिर प्रमुख हैं। सोमेश्वर मंदिर के बगल में एक बावली है जिसमें अब भी आसपास के गांवों के लोग नहाया करते हैं।
मौजूदा भानगढ़ एक शानदार अतीत की बरबादी की दुखद दास्तान है। किले के अंदर की इमारतों में से किसी की भी छत नहीं बची है। लेकिन हैरानी की बात है कि इसके मंदिर लगभग पूरी तरह सलामत हैं। इन मंदिरों की दीवारों और खंभों पर की गई नफीस नक्काशी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह समूचा किला कितना खूबसूरत और भव्य रहा होगा।
माधो सिंह के बाद उसका बेटा छतर सिंह भानगढ़ का राजा बना जिसकी 1630 में लड़ाई के मैदान में मौत हो गई। इसके साथ ही भानगढ़ की रौनक घटने लगी। छतर सिंह के बेटे अजब सिंह ने नजदीक में ही अजबगढ़ का किला बनवाया और वहीं रहने लगा। आमेर के राजा जयसिंह ने 1720 में भानगढ़ को जबरन अपने साम्राज्य में मिला लिया। इस समूचे इलाके में पानी की कमी तो थी ही 1783 के अकाल में यह किला पूरी तरह उजड़ गया।
भानगढ़ के बारे में जो किस्से सुने जाते हैं उनके मुताबिक इस इलाके में सिंघिया नाम का एक तांत्रिक रहता था। उसका दिल भानगढ़ की राजकुमारी रत्नावती पर आ गया जिसकी सुंदरता समूचे राजपुताना में बेजोड़ थी। एक दिन तांत्रिक ने राजकुमारी की एक दासी को बाजार में खुशबूदार तेल खरीदते देखा। सिंघिया ने तेल पर टोटका कर दिया ताकि राजकुमारी उसे लगाते ही तांत्रिक की ओर खिंची चली आए। लेकिन शीशी रत्नावती के हाथ से फिसल गई और सारा तेल एक बड़ी चट्टान पर गिर गया। अब चट्टान को ही तांत्रिक से प्रेम हो गया और वह सिंघिया की ओर लुढकने लगा।
चट्टान के नीचे कुचल कर मरने से पहले तांत्रिक ने शाप दिया कि मंदिरों को छोड़ कर समूचा किला जमींदोज हो जाएगा और राजकुमारी समेत भानगढ़ के सभी बाशिंदे मारे जाएंगे। आसपास के गांवों के लोग मानते हैं कि सिंघिया के शाप की वजह से ही किले के अंदर की सभी इमारतें रातोंरात ध्वस्त हो गईं। उनका विशवास है कि रत्नावती और भानगढ़ के बाकी निवासियों की रूहें अब भी किले में भटकती हैं और रात के वक्त इन खंडहरों में जाने की जुर्रत करने वाला कभी वापस नहीं आता।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने सूरज ढलने के बाद और उसके उगने से पहले किले के अंदर घुसने पर पाबंदी लगा रखी है। दिन में भी इसके अंदर खामोशी पसरी रहती है। कई सैलानियों का कहना है कि खंडहरों के बीच से गुजरते हुए उन्हें अजीब सी बेचैनी महसूस हुई। किले के एक छोर पर केवड़े के झुरमुट हैं। तेज हवा चलने पर केवड़े की खुशबू चारों तरफ फैल जाती है जिससे वातावरण और भी रहस्यमय लगने लगता है।
लेकिन ऐसे भी लोग हैं जो भानगढ़ के भुतहा होने के बारे में कहानियों पर यकीन नहीं करते। नजदीक के कस्बे गोला का बांस के किशन सिंह का अक्सर इस किले की ओर आना होता है। उन्होंने कहा, ‘‘मुझे इसमें कुछ भी रहस्यमय दिखाई नहीं देता। संरक्षित इमारतों में रात में घुसना आम तौर पर प्रतिबंधित ही होता है। किले में रात में घुसने पर पाबंदी तो लकड़बग्घों, सियारों और चोर - उचक्कों की वजह से लगाई गई है जो किसी को भी नुकसान पहुंचा सकते हैं।’’

बाकी इमारतों के ढहने और मंदिरों के सलामत रहने के बारे में भी किशन सिंह के पास ठोस तर्क है। उन्होंने कहा, ‘‘सरकार के हाथों में जाने से पहले भानगढ़ के किले को काफी नुकसान पहुंचाया गया। मगर देवी - देवताओं से हर कोई डरता है इसलिए मंदिरों को हाथ लगाने की हिम्मत किसी की भी नहीं हुई। यही वजह है कि किले के अंदर की बाकी इमारतों की तुलना में मंदिर बेहतर हालत में हैं।’’

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने किले के अंदर मरम्मत का कुछ काम किया है। लेकिन निगरानी की मुकम्मल व्यवस्था नहीं होने के कारण इसके बरबाद होने का खतरा बना हुआ है। किले में भारतीय पुरातत्व सवेक्षण का कोई दफ्तर नहीं है। दिन में कोई चौकीदार भी नहीं होता और समूचा किला बाबाओं और तांत्रिकों के हवाले रहता है। वे इसकी सलामती की परवाह किए बिना बेरोकटोक अपने अनुष्ठान करते हैं। आग की वजह से काली पड़ी दीवारें और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के टूटेफूटे बोर्ड किले में उनकी अवैध कारगुजारियों के सबूत हैं।
दिलचस्प बात यह है कि भानगढ़ के किले के अंदर मंदिरों में पूजा नहीं की जाती। गोपीनाथ मंदिर में तो कोई मूर्ति भी नहीं है। तांत्रिक अनुष्ठानों के लिए अक्सर उन अंधेरे कोनों और तंग कोठरियों का इस्तेमाल किया जाता है जहां तक आम तौर पर सैलानियों की पहुंच नहीं होती। किले के बाहर पहाड़ पर बनी एक छतरी तांत्रिकों की साधना का प्रमुख अड्डा बताई जाती है। इस छतरी के बारे में कहते हैं कि तांत्रिक सिंघिया वहीं रहा करता था।
भानगढ़ के गेट के नजदीक बने मंदिर के पुजारी ने इस बात से इनकार किया कि किले के अंदर तांत्रिक अनुष्ठान चलते हैं। लेकिन इस सवाल का उसके पास कोई जवाब नहीं था कि खंडहरों के अंदर दिखाई देने वाली सिंदूर से चुपड़ी अजीबोगरीब शक्लों वाली मूर्तियां कैसी हैं? किले में कई जगह राख के ढेर, पूजा के सामान, चिमटों और त्रिशूलों के अलावा लोहे की मोटी जंजीरें भी मिलती हैं जिनका इस्तेमाल संभवतः उन्मादग्रस्त लोगों को बांधने के लिए किया जाता है। किसी मायावी अनुभव की आशा में भानगढ़ जाने वाले सैलानियों को नाउम्मीदी ही हाथ लगती है। मगर राजपूतों के स्थापत्य की बारीकियों को देखना हो तो वहां जरूर जाना चाहिए। किले के अंदर बरगद के घने पेड़ और हरीभरी घास पिकनिक के लिए दावत देती है। लेकिन अगर आप वहां चोरी से भूतों के साथ एक रात गुजारने की सोच रहे हों तो जान लें कि भूत भले ही नहीं हों, जंगली जानवर और कुछ इंसान खतरनाक हो सकते हैं।
इस किले में प्रवेश करने वाले लोगों को पहले ही चेतावनी दे दी जाती है कि वे सूर्योदय के पूर्व और सूर्यास्त के पश्चात् इस इस किले के आस पास समूचे क्षेत्र में प्रवेश ना करें अन्यथा किले के अन्दर उनके साथ कुछ भी भयानक घट सकता है। ऐसा कहा जाता है कि इस किले में भूत प्रेत का बसेरा है,भारतीय पुरातत्व के द्वारा इस खंडहर को संरक्षित कर दिया गया है।गौर करने वाली बात है जहाँ पुरात्तव विभाग ने हर संरक्षित क्षेत्र में अपने ऑफिस बनवाये है वहीँ इस किले के संरक्षण के लिए पुरातत्व विभाग ने अपना ऑफिस भानगढ़ से किमी दूर बनाया है।

जयपुर और अलबर के बीच स्थित राजस्थान के भानगढ़ के इस किले के बारे में वहां के स्थानीय लोग कहते हैं कि रात्रि के समय इस किले से तरह तरह की भयानक आवाजें आती हैं और साथ ही यह भी कहते हैं कि इस किले के अन्दर जो भी गया वह आज तक वापस नहीं आया है,लेकिन इसका राज क्या है आज तक कोई नहीं जान पाया। 

मिथकों के अनुसार भानगढ़ एक गुरु बालू नाथ द्वारा एक शापित स्थान है जिन्होंने इसके मूल निर्माण की मंज़ूरी दी थी लेकिन साथ ही यह चेतावनी भी दी थी कि महल की ऊंचाई इतनी रखी जाये कि उसकी छाया उनके ध्यान स्थान से आगे ना निकले अन्यथा पूरा नगर ध्वस्त हो जायेगा लेकिन राजवंश के राजा अजब सिंह ने गुरु बालू नाथ की इस चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया और उस महल की ऊंचाई बढ़ा दी जिससे की महल की छाया ने गुरु बालू नाथ के ध्यान स्थान को ढंक लिया और तभी से यह महल शापित हो गया।

एक अन्य कहानी के अनुसार राजकुमारी रत्नावती जिसकी खूबसूरती का राजस्थान में कोई सानी नहीं था।जब वह विवाह योग्य हो गई तो उसे जगह जगह से रिश्ते की बात आने लगी।

एक दिन एक तांत्रिक की नज़र उस पर पड़ी तो वह उस पर कला जादू करने की योजना बना बैठा और राजकुमारी के बारे में जासूसी करने लगा।

एक दिन उसने देखा कि राजकुमारी का नौकर राजकुमारी के लिए इत्र खरीद रहा है,तांत्रिक ने अपने काले जादू का मंत्र उस इत्र की बोतल में दाल दिया,लेकिन एक विश्वशनीय व्यक्ति ने राजकुमारी को इस राज के बारे में बता दिया।

राजकुमारी ने वह इत्र की बोतल को चट्टान पर रखा और तांत्रिक को मारने के लिए एक पत्थर लुढ़का दिया,लेकिन मरने से पहले वह समूचे भानगढ़ को श्राप दे गया जिससे कि राजकुमारी सहित सारे भानगढ़ बासियों की म्रत्यु हो गई।

इस तरह की और और भी कई कहानियां हैं जो भानगढ़ के रहस्य पर प्रकाश डालती हैं लेकिन हकीकत क्या है वह आज भी एक रहस्य है।